कब समझेंगे ये!
कब समझेंगे ये!
प्रिय डायरी,
इन दानिशमंदों को क्या कहिए!
घरबंदी है, घेराबंदी है
एहसान हुआ है हम पर;
कब समझेंगे ये-
जो सैर- सपाटे पर निकले हैं,
कब समझेंगे ये-
मुश्किल घड़ियां हैं बेशक,
आज नहीं तो कल टलनी हैं, टल जाएंगी।
दूकानों में, बाज़ारों में
टूट पड़े हैं जो;
कब समझेंगे ये-
सूरज कल फ़िर आएगा,
कब समझेंगे ये-
जहां- तहां भिड़ जाते हैं जो,
मानो अब दंगल की तैयारी है!
संत न देखें, महंत न देखें
वर्दी ना देखें ना नीयत जानें;
कब समझेंगे ये-
लाठी पत्थर खाकर भी ये क्यों डटे हुए हैं!
कब समझेंगे ये-
ख़ून सनी धरती
जब उबलेगी, ख़ून ही उगलेगी!!
मरते मर जाएंगे,
साथ न कोई आएगा;
कब समझेंगे ये-
गुमनाम शिकारी से पाला है,
कब समझेंगे ये-
अबके हमने साथ दिया
तो साथ बिताने के दिन फ़िर आएंगे!