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kalpana gaikwad

Abstract

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kalpana gaikwad

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कैद

कैद

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ओ प्यारी सी

नन्हीं सी न्यारी सी

मासूम पिजरें में कैद बुलबुल

तुम्हें असह्य पीड़ा होती होगी

तुम भी तो कभी सोचती होगी

कि काश


मेरी भी जुबान होती

मैं भी कुछ कह पाती

मुझे आजादी पसंद हैं

मैं भी अपने पँखों को

फैलाकर,उन्मुक्त नभ में

विचरण करना चाहती हूँ


और पंछियों की तरह

जीना चाहती हूँ

क्यों रहूँ निर्भर, औरों पर

कैद करके पिजरें में मुझको


सैय्याद बन ना मुस्कराओ

इंसानियत हो तुम्हारी जिन्दा तो

तो इंसान बनकर

मुझ पर थोड़ा तो तरस खाओ

मेरी ख़ुशी मेरी आजादी हैं

हरी भरी ये वादी हैं


इन्हीं वादियों में हैं मेरा बसेरा

काटो ना पँख मेरे

कर दो ना आजाद मुझे

मानव रूपी शिकारी

मुझमें भी तो प्राण हैं

समझो ना पँख विहीन मुझे

दर्द मेरा तुम पहचानो

ऐ धरती के नेक बंदों


काम करो तुम कुछ महान

क्यों करते हो कैद मुझे

खोल दो मेरा पिंजरा

भरने दो मुझको उन्मुक्त उड़ान।


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