काश!
काश!
सब तो
थम ही जाना है
एक न एक दिन
न यह एक
अंतहीन यात्रा
आत्मा की भी ।
उसको भी
चिर विराम
मिलेगा लेकिन
शाश्वत सत्य से
मिलन के बाद
तब तक
न जाने कितने जन्म
कितने बंधन
कितने अनुभव
सब गठरी में
समेटने होंगे।
समय की
पदचाप सुनते
भागते पीछे पीछे
थकना भी है
रुकना भी है और
फिर से
भागना भी है
अनवरत।
मैं अक्सर
सोचती हूँ ये
की किसलिए
चुना होगा ये वियोग
उस परम ऊर्जा से
की फिर
उसी से मिलने
को आतुर जिये जा रही
लिए जा रही
अनगिनत
बंधन ,अनुभव,
और जन्म ।
संभवतः
अपनी समर्पित
निःस्वार्थ प्रेमी
प्रकृति के
वशीभूत हो
किसी क्षण
कर लिया होगा
उससे वियोग स्वीकार
कोई परीक्षा
समझ कर।
पर क्या
वो परम सत्ता
नही समझती होगी
मेरी व्यग्रता ,
उसके नहीं खलती होगी
मेरी कमी
मेरा साथ या अहसास
बस सोचते सोचते
यही बात
एक हूक उठती है
कि काश
कोई दिन
अचानक यूं ही
पिघल जाए वो
हृदय विशाल
और बुला ली जाऊं
वहां उस
परम ऊर्जा के
आलिंगन में
सदा सर्वदा के लिए
विलीन होने।
काश,
काश...।