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VIVEK ROUSHAN

Abstract

3.8  

VIVEK ROUSHAN

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काश ! मैं मिट्टी होता

काश ! मैं मिट्टी होता

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काश ! मैं मिट्टी होता 

पड़ा रहता धरती पर 

उगाता

गरीब किसानों के लिए फसल 

रहता पेड़-पौधों से प्रेम

करने वाले लोगों के 

बागों में, गमलों में 

उगाता उनके लिए रंग-बिरंगे 

खुशबूओं से भरे फूल 


देता उन्हें खाने के लिए फल 

छुपाये रहता अपने अंदर पेड़ों के जड़ों को 

बचाता उन्हें हर एक विपत्ति से, 

जो मुझसे प्रेम करते 

वो मुझे पानी देते 

देते खाने को गोबर जिससे 

मैं सदा उपजाऊ रहता, जिन्दा रहता 


उग आते मेरे ऊपर हरे-हरे घास 

जिन्हें आदमी नहीं उगाता 

वो उग आते हैं बिना किसी बीज के 

तप्ति धरती को छांव देने के लिए 

जिसे पानी देता है आकाश 


जिसे सींचता है नदी 

जिसे चरते हैं भूखे जानवर 

जो इंसानो के लिए गैर-जरुरी है 

पर संसार के

अनेकों जीव-जंतु के लिए 

बहुत जरुरी है।


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