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काश मैं अपनी बेटी का पिता होता

काश मैं अपनी बेटी का पिता होता

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मैं शब्दों के भार को तौलता रहा

भाव तो मन से विलुप्त हो गया।

मैं प्रज्ञा की प्रखरता से खेलता रहा

विचारों से प्रकाश लुप्त हो गया।


मस्तिष्क धार की गति तो तीव्र थी,

मन-ईश्वर का समन्वय सुषुप्त हो गया।

मैं ढल रहा था महामानव जैसा

मन की वेदना से उच्च थी स्वयं की वंदना।


मेरे शब्द सितार के तार थे

पुस्तक की लय के लिए।

उनके पास समय न था,

किसी की विनय के लिए।


पदार्थवादी दंश मेरा जीवन था,

इस जीवन में, आविर्भाव हुआ,

एक कन्या का, मेरी बेटी का।


ईश्वर की इस मंत्रश्रुति से,

मैं मंत्रमुग्ध हो गया,

मन-ईश्वर के संग्रंथन से,

भाव को संजीवन मिल गया।


अल्पप्राण- परिक्षीण विचारों

को मानो पीयूष मिल गया,

एक नयी कविता का जन्म हुआ।


मैं अद्भुत था,

वात्सल्य भाव पर परन्तु

मेरी परिणीता को संदेह था,

कहीं मैं ममता का विखंडन

कर इस कृति को

अपहस्त ना कर दूं।


मैं लज्जाशून्य नहीं था,

कई भावों को लील लिया।

मैं अपने प्राणाधार को

चन्द्रमण्डल के सोलहवें भाग

जैसा चाहता था।


क्षणजीवी विचार था

प्रकाशगृह से निकल गया,

मेरी बाल-देवी लेकिन

पीठिका सी बन रही थी।


मैं शब्दों का शमन कर

श्वेतांशु सा मौन हो रहा था।

मैं जब भी अपनी सुता की

मंदस्मित चाहता,


किसी पोथी का पहला अध्याय

मेरा मार्ग कंटक होता।

अंबरमणि विपर्यय को ही

उज्जवल कर रहा था।


हृदय खंडाभ्र सा अंशित हुआ

चेतन्य से मैं मुर्छित हुआ,

शब्दों में निपुण,

शब्दों के भार से दबा

मैं कितना शिथिल हूँ।


काश मैं केवल अपनी

बेटी का पिता होता,

चट्टान सा दृढ...।


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