काफिर
काफिर


आईने लगा दो शहर के हर गली नुक्कड़ पर
शरीफों के भेष में गुनाहगार फिरते हैं।
नकाब उतारकर बेनकाब करो मक्कारों को
जुर्म छुपाने वहशियाना हरकत जो करते हैं।
जागते रहो हाथों में मशाले लेकर
सितमगर बनकर सितम जो करते हैं।
बुनियाद तो उनकी हिलके रहेगी
रिश्तो में जिनके दरार जो करते हैं।
कीचड़ से भरी हो अक्ल जिनकी
समझाना उनको बेकार जो करते हैं।
जो घोपते हैं खंज़र पीठ पीछे उम्मीद
उनसे क्या करना, कुदरत से गद्दारी जो करते हैं।
अंधा कर दो उन काफिर आँखों को 'नालंदा'
हक पर हमारे बुरी नजर जो डालते हैं।