जुनून-ए-इश्क़
जुनून-ए-इश्क़
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
मैं उसको खोजती ही हूँ, मुझे जिससे मुहब्बत थी,
रही ख़्वाबों में उसके, ना कभी सोची हक़ीक़त थी।
जुनून-ए-इश्क़ में हमने ये तन,मन और दिल-ओ-जां
दिया सब कुछ लुटा, ना जाने फिर कैसी शिकायत थी।
कि उस दिलबर ने किया ज़ुर्म, दिल मेरा चुराकर के,
यूँ सब इल्ज़ाम लगाकर मुझ पे, की उसने बगावत थी।
नहीं पाया जिसे उसको , न खोने की कोई चाहत,
मुहब्बत में बनाई किसने, है ऐसी रवायत थी।
दिया है 'ज़ोया' ने खुद को बदल, यूँ तो तिरे ख़ातिर,
नहीं जाती तुझे याद करने की, जो पहले आदत थी।
27th August 2021/ Poem 35