जज्बात दिल के
जज्बात दिल के
जज्बातों में बहकर लिखी थी मैने एक पाती
जो दबी रह गई थी तकिया के नीचे,
उस समय दिल पर मेरा दिमाग हावी था,
तुम्हारे साथ मेरा नफा है या नुकसान
ये समझना जरूरी था।
दिल पर जीत दिमाग की हुई,
जज्बातों की नदी आंसू बन बह गई
सही गलत के फेर में पड़
वो पाती रखी रह गई।
अब जब भी लगता है मैं जज्बाती
नहीं पत्थर दिल हो गई हूँ,
खोलकर पढ़ लेती हूं वो पाती।
बड़ा ही सुकून मिलता है ये सोचकर
कि हमेशा से हम कठोर नहीं थे
पहले हम भी हुआ करते थे जज्बाती।