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Priti Pimpalkhare

Abstract

3.9  

Priti Pimpalkhare

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ज़िंदगी

ज़िंदगी

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ज़िंदगी मौत का सामान बन गई है

खुद अपनी ही रुखसत का इंतजाम बन गई है


अब कायनात से भी क्या गिले शिकवे करें हम

जब ज़िंदगी ही अपने आखिरी सफर पर चल पड़ी है


पहुंची जब ज़िंदगी मंज़िल पर ये सामान लिए

जन्नत भी दोज़ख सी लग रही थी


पीछे मुड़कर देखा तो बचे कुछ सामान की होली जल रही थी

मातम के बीच दावते भी शौक फरमाए जा रही थी


कहाँ से चली थी मैं, कहाँ पहुंच गई हूं

ये सोचने लगी है

अपनी ही मौत का यूं तमाशा देख

ज़िंदगी अब हंसने लगी है... 

ज़िंदगी अब हंसने लगी है.



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