जिंदगी का गणित
जिंदगी का गणित
अपना जीवन भी तो एक गणित है
जिसे हम ही बनाते हैं
सांसे घटती है अनुभव जुड़ते हैं
जिंदगी चलती कहां समानांतर है
रास्ते ऊंचे नीचे हो जाते हैं
यूं तो हल कर लिया करतें थें
किताबों के गणित को पर
अब डर सा लगता है जिंदगी के गणित से
अपने जीवन के कई एक मोड़ पर
जिंदगी त्रिकोणमिति बन जाती है
ज्यामिति की रेखाओं जैसी
जिंदगी ना फैले आड़ी तिरछी रेखाओं सी
अलग-अलग कोष्ठको़ं में बंद
हम समीकरण बुनते रहते हैं
पर डर सा लगता है जिंदगी की गणित से
अपनों के बीच जब
बन जाती है दोराहे
बिन कहे बिन सुने
वापस मुड़ जाते हैं
कभी गुणा कभी भाग कर
जिंदगी के गणित को
हल करने की कोशिश करते हैं
पर अब डर लगता है जिंदगी की गणित से
सीमित रहना चाहते हैं हम
जिंदगी असीमित छोर ना ले जाए
अब खुशी मिलती नहीं
सम्भावनाओं के मूल्यांकन से
और ना फंसना चाहते हैं हम
जिंदगी के ग्राफ के जंजाल में
क्योंकि अब डर लगता है जिंदगी के गणित से
डरते हैं कभी कभी
मन के अनसुलझे आकलन से
कभी बिंदु सुख का पाते हैं
कभी मिलता दुख वक्र का जीवन से
क्योंकि अब डर लगता है जिंदगी के गणित से
अंतिम समय दो में से
जब एक चला जाता है
फिर कुछ नहीं बचता
जिंदगी की गणित में
अंत में सिर्फ चारों ओर
शुन्य ही शुन्य बच जाता है
बस यही जीवन का
आखिरी सत्य रह जाता है