जिन्दगी "जिन्दगी" बन चुकी थी
जिन्दगी "जिन्दगी" बन चुकी थी
बरामदे में बैठा था उस दिन
जिन्दगी को निहार रहा था
बहुत दिनों बाद मिली थी
सो बैठ गई गुफ्तगू करने
मुद्दत हो गई थी
जिन्दगी से बिछड़े हुए
सो आज तो ठान ही ली थी
जिन्दगी को छोड़ना नहीं है
कस कर पकड़ कर रखना है
ताकि फिर हाथों से फिसल न जाए
कहीं कहीं अधूरा अधूरा सा लग रहा था
जाने क्यूँ “जिन्दगी” कुछ गुमसुम सी थी?
थोड़ा उदास भी थी, थोड़ी निराश सी थी
सोचा पूछ लूँ पर हिम्मत नहीं हुई
क्या पता कहीं नाराज हो जाए
आजकल छोटी छोटी बातों पर
अपने नाराज हो जाते हैं
फिर जिन्दगी का क्या भरोसा
वह तो कुछ ज्यादा ही अजीज थी
तभी जिन्दगी कहने लगी
“आजकल मन बहुत उदास है
जीने का मन नहीं करता”
मैंने पूछा, “ऐसे क्यूँ बात कर रही हो,
क्या हो गया”?
“क्या बताऊँ? कोई एक बात हो तो कहूँ?
यहाँ तो ख़ुश होने का
कोई कारण ही नजर नहीं आता”
हर ओर लूट मार, नोच खसोट,
विघटन की बातें,
मारो, काटो, जला डालो की आवाज़ेँ,
छोटी छोटी जिंदगियों से बलात्कार,
बच्चों का हो रहा व्यापार,
बड़ों से दुर्व्यवहार
मिट रहे संस्कार और सदाचार,
फैला हर ओर कदाचार
ख़ुश रहने का बता दो कोई एक कारण,
बता दो कोई भी ऐसा एक आयोजन
जहाँ दिखावे के नाम पर
लोग पैसे नहीं फूंकते हो?
जहाँ गरीब के बच्चे भूखे न मरते हो?
जहाँ छोटे बच्चे
चरस, गांजा न खाते हो?
जहाँ कोई जुआ न खेलता हो?
जहाँ कोई शराब न पीता हो?
धर्म के नाम पर होती रहती
जहाँ लड़ाई घमासान
सेना का जहाँ होता रहता
खुले आम अपमान
बताओ तुम, कैसे इन बातों को
नजर अंदाज़ करूँ?
कैसे ख़ुश होने का दम भरूं?
मैं सुनता रहा
सोच में पड़ गया
फिर कहा,
“मान गया तुम्हारी बात
पर फिर भी हैं जिन्दा
एक आशा की किरण
एक ख़ुशी भरी शबनम
और वो खुद तुम हो जिन्दगी
हाँ जिन्दगी, वो तुम्हीं तो हो
जो दृश्य को बदल सकती हो”
जिन्दगी सोच में पड़ गई और
उसने पूछा, “ कैसे”?
मैंने कहा, “तुमने सब बाते जो बताई
वो तो किस्से का एक पहलु है।
और भी तो बातें हैं
जो सकारात्मकता जताती हैं
नदी की कल कल आवाज़,
बादलों की गर्जन,
चाँद तारों की अठखेलियां,
उँचे उँचे दरख़्त,
पेड़, पहाड़, समन्दर,
धरती को प्रकाश देता सूर्य,
रामायण, महाभारत की कथाएँ,
भगवत गीता के वचन,
महात्माओं की वाणी
पंछियों का कलरव,
भौरों की गुंजन
इन सब में तो मुझे
दुःखी होने का कारण नजर नहीं आता”
जिन्दगी मुसकुराने लगी
अब जिन्दगी उदास न थी
चमक उठी थी
एक नये विश्वास की आभा
दमक रही थी
जिन्दगी फिर “जिन्दगी” बन चुकी थी
तभी मेरी नींद टूट गई
देखा, सामने “जिन्दगी” खड़ी थी
और उसके साथ थी
अनगिनत खुशियाँ……
खिड़की के बाहर नई सुबह की
नई सफ़ेद धूप चमक रही थी
और दे रही थी
जिन्दगी का सन्देश।