जीवन रूपी मधुर मधु
जीवन रूपी मधुर मधु


जीवन रूपी मधुर मधु
क्यों हम इतने उलझे-उलझे हैं ?
क्यों हम सुलझते नहीं,
क्यों हम धड़कते नहीं,
क्यों मुस्कान से खेलते नहीं ?
क्यों सहमे-सहमे जीते हैं ?
क्यों साँसो के पट खोलते नहीं,
क्यों हृदय की खिड़कियों से झाँकते नहीं,
क्यों प्रेम भरी नजरों से निहारते नहीं?
क्यों सुलगे-सुलगे से रहते हैं ?
क्यों सहजता से वार्ता करते नहीं,
क्यों धैर्य का हाथ थाम रहते नहीं,
क्यों संतुष्टि का हाथ पकड़ते नहीं ?
क्यों हड़बड़ाहते से दौड़ते ही रहते हैं ?
क्यों अंतः में धीर धरते नहीं,
क्यों मन को समझाते नहीं,
क्यों अहम् को छोड़ते नहीं?
क्यों चिंताओं के भँवर में फंसे रहते हैं ?
क्यों कर्म पर विश्वास रखते नहीं,
क्यों फल ईश्वर पर छोड़ते नहीं,
क्यों अच्छे- बुरे फल ग्रहण करते नहीं,
क्यों भूत को उधेड़ते रहते हैं ?
क्यों सीधे-सीधे आगे चलते नहीं,
क्यों राहों से कंटक निकालते नहीं,
क्यों सभ्य बन आगे बढ़ते नहीं ?
क्यों इस सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति
आनंदमय हो आगे बढ़ती नहीं,
अपने ही रिश्तो में जीती नहीं,
क्यों इस जीवन रूपी मधुर
मधु को सरलता से पीती नहीं ?