जीवन की उत्पत्ति
जीवन की उत्पत्ति
फूल खिला निर्मल धरा पे अति उत्तम।
ईश करुणा के जो छलक उठे बीज सर्वउत्तम।
नर के नारायणी का हुआ जो आवहान,।।
धरती पे फिर आया एक नवीन प्राण।
सिंचित करने को धरा को।।
खेत खलिहान हर तरफ हरा भरा।
रक्तचंदन पुष्प बुरांस खिले हुए।।
पर्वत पर्वत मेघ है बिखरे हुये।
अंतरिक्ष भी नीलम सा इतरा रहा।।
हर तरफ है उसकी माया
अधरों पे लालिमा, मुक्तहस्त बरदान,
प्रेम पराग फैला हुआ क्रोध का न निशान।।
उजली कमनीय जैसे कोई दिब्य हो कंचन काया।।
जीवन पुष्प खिलाने को धरा हुआ है रूप
श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम तक का करने को निर्माण
मानव को सभ्यता के पाठ का,
सिमरन करने को लिया है उसने स्वरुप।।
नष्ट जो हो न पाए ऐसा दिया है बरदान
खुद को सम्महित कर इस संसार मे
मथने को जीवन नया आकार।।
युगों युगों से हो रहा है नित आवाहन ।।