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जीवन का डगर

जीवन का डगर

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धीरज धर के सारे दुखों को सहे हैं

जीवन के पीङाओं को हंस के सहे हैं,

कांटों से भरी डगर थी हमारी

बिना पादुकाओं के उस पे चले हैं।


न कोई था अपना शहर भी नया था

मुसाफिर थे हम ना कोई सगा था

दिन के उजालों में भटके रहे हम

रातों में भी घर का ना कोई पता था।


भरोसा किया जिसपे उसने छला है

राहों में हमेशा ही बाधा मिला है

न जाने ये जीवन का कैसा सिला है

मगर जो मिला है वो रब से मिला है।


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