जीवन चक्र...
जीवन चक्र...
जीवन एक सूखे पत्ते की भांति ही …
हर क्षण अस्थिर है!
कि जाने कब कोई तूफ़ान आए… और
पल भर में वर्तमान अतीत में परिवर्तित हो जाए…
पर… कहानी यहां खत्म नहीं होती
और… हो भी कैसे सकती है…
सूखे पत्ते की दास्तां भी निरंतर प्रगतिशील है
इक नाज़ुक और मुलायम
सी नन्ही गुलाबी पत्ती…
मानो कोई नन्ही सी जान…
अभी-अभी इस दुनिया में आई हो…
और.. जैसे-जैसे पत्तों के रंग
एक नियमित अंतराल पर…
परिवर्तित होते हैं… मानो वैसे ही…
वह नन्ही सी जान भी…
अपने नाज़ुक नन्हे क़दमों से…
हर तरफ़ खुशियां बिखेरती हो…
इस पल से बेहतर… कोई तुलना
प्रकृति व मनुष्य के बीच हो सकती है भला?
जैसे ही वह नाज़ुक पत्ता…
एक परिपक्व पत्ते में बदलता है
अपनी डाल से जुड़े रहकर… धूप व वातावरण के
आश्चर्यजनक क्रियाओं से संपन्न होकर …
अपनी जड़ों को पोषित करता है…
वैसे ही मानो… वह नन्ही सी जान …
जैसे ही अपने उम्र के संतुलित पड़ाव पर पहुंचती है…
मानो उसे… अपने अस्तित्व… अपने उद्देश्य का
गहन बोध होता है… वह भी…
अपने कौशल… परिस्थिति और समाज से जुड़कर…
आत्मज्ञान वह आत्मक्षमता से परिपक्व होकर…
अपने स्वधर्म की ओर अग्रसर होती है…
और जिस पल….
उस नन्हे पत्ते व नन्ही जान के…
जीवन का उद्देश्य पूर्ण होता है…
वह फ़िर से… आपने मूल तत्व में विलीन होते हैं…
अपनी वृद्धावस्था पार कर… वह पत्ता…
जैसे ही… धरातल की ओर प्रस्थान करता है…
तो एक नए रूप में परिवर्तित होता है…
पुनः एक बार…
प्रकृति के क्रियाकलापों में योगदान करता है…
वैसे ही … वह नन्ही जान…
जीवन के सभी पड़ावों को पार कर…
प्रकृति के मूल तत्व में विलीन होती है…
और… अपने संपूर्ण जीवन के कर्म ज्योति से…
संसार को अनंतकाल तक प्रकाशमान करती है…
जैसे वह नन्हा पत्ता… सूखकर…
जीवन के उस रुप में भी मुस्करा सकता है…
वैसे ही… मानव जीवन भी…
जीवन के हर पड़ाव पर कुछ न कुछ सीखकर ही…
जीवन की सुंदरता को जान सकता है…
प्रकृति सदैव प्रगतिशील बनी रह सकती है …
अगर गैर प्राकृतिक तत्व…
अपने कुटिल इरादे … इनपर हावी ना होने दें…
संभवतः यही खूबसूरती है…
जीवन चक्र की…
संभवतः यही खूबसूरती है…
प्रकृति के निर्धारण की…
संभवतः यही खूबसूरती है… ब्रह्मांड की… ।