जेब
जेब
घर से निकलती हूँ जब भी
कहीं भी जाने के लिए
तब कुछ रुपयों की दरकार होती है
और वह मुझे मांगने पड़ते हैं,
सदा से मांगते हीं तो आई हूँ न,
उस घर से इस घर तक.
मिल जाते थे कभी आनन-फानन
अब भी मिल जातें हैं पर
कभी-कभी नहीं भी मिलते हैं
पर्स है,पर जेब नहीं है
अफसोस है बहुत..
कई मर्तबा सोचा था कि
सलवार कमीज़ में एक जेब
होनी चाहिए,पता नहीं क्यों सोचा था
खैर, अब तो साड़ी पहनती हूँ
फिर भी जेब और कमाई के दोनों
के बारे में जबरदस्त सोचती हूँ .
बुरा तब नहीं लगता था जब दस
मांगने पर दो या पांच मिलते,
कड़वा तब भी नहीं लगा जब
देनेवाली जुबां ने ना कहा
या दसों सवाल जवाब किए
कमाने के दर्द गिनवा दिए.
बुरा लगता है तब जब पिता से
भाई या बेटा दस मांगे और पचास
दिये जाते रहे
और हंसते हुए,"अरे दस में आजकल
मिलता ही क्या है"? कहा गया हो.
अधिक चाहिए तो माँ से
ले लेने को कहा गया.
"जेबें खाली अच्छी नहीं लगती
बेटों की.
वाकई अच्छी नहीं लगती"?
पत्नी हूँ अब,मां भी हूँ
पर आज भी जेब नहीं है मेरे पास.
खुले मन से किसी की मदद
नहीं कर सकती,खर्च भी नही,जमा भी नहीं,
कल परसों ही तो दिए थे'हिसाब लिखा करो'
अरे,"जमा क्यों रखे, किसलिए
मैं हूँ ना ...फिर मांग लेंती मुझसे."
यह सुन सुन अब तीस बरस बाद फ़िर
अचानक सोचने लगी हूँ
मेहनत कर दो पैसे कमा ही लूं मैं भी,
क्यों ?
अरे यूँ ही,
जेब सिलवाऊंगी कपड़ों में मैं भी ...