जब प्रेम में होता है पुरुष
जब प्रेम में होता है पुरुष
शब्दों की परिभाषा बन जाता है,
वार देता है कायनात की सारी रंगीनियां महबूबा के माहताब पर
गेसूओं में खोकर खुद को भूल जाता है
प्रेम में होता है जब पुरुष बच्चा बन जाता है
उतर आती है उसकी आँखों में समुन्दर की गहराइयाँ
बाँहे फैलाए जब आह्वान देता है अपनी तरंगिणी को
आगोश में समा जाने का।
चुम्बन की मोहर में भर लेता है
शीतलता चाँदनी से भीख मांग कर लाता है
और प्रियतमा के भाल पर मलते आँखें नम कर जाता है
सारे सुखों की गठरी बाँधकर आता है,
भर देता है आँचल सराबोर जब अपनी महबूबा की पनाह में आता है
अंतरंगी पलों में इश्क जताता है जब प्रेम में होता है पुरुष
तब आफ़ताब की धूप सा बन जाता है,
तिश्नगी भर रोम-रोम में चाँद सा प्रेमी शबनम बनकर
शिद्दत से बरस जाता है अपनी प्यासी धरा पर
जब प्रेम में होता है पुरुष तब
नहीं आता उसे अहसास जताना बातों के ज़रिए,
बस समर्पित होते
महबूबा के काँधे पर सर रखकर खाली कर देता है खुद को नखशिख
जब जोड़ता है रूह से रिश्ता रूह का पुरुष,
कदमों में दिल बिछाकर साँस-साँस अपने साथी के
नाम लिख देता है जब प्रेम में होता है पुरुष।