इतनी यंत्रणा कहाँ से लाई?
इतनी यंत्रणा कहाँ से लाई?


मेघ आए इंद्र के घर
बरसे इस संवत या नहीं ?
इस बरस,
बरस गई अँखियाँ कहीं
इतनी बरसी की धरा नहा गई ।
अब कहाँ बरसूँ !
इतनी वेदना,
इतनी यंत्रणा कहाँ से लाई ?
क्या सह गई मानव पुत्री
कि अश्रु की झड़ी लग गई,
चाह कर भी मुस्कान के
अंकुर फूटते नहीं,
गमों को कफन पहनाते नहीं ।
इतना सहा की झरने बह गए,
तटिनयों के तट टूट गए,
बरसों से गाते उस सुरमई
साज के तार बिखर गए ।
जो अपने में तूफान समेटे थे
वे गंगाजल सुनामी-से बह गए,
पर उसके अंदर सुलगते रिश्ते
बगावत ना कर सके
और नैनों के बांध टूट गए ।
उस तबाही के हम
दर्शकगण बन गए ।
होंठों पर लगे ताले
खुल गए, तो
बेवफाई के किस्से
लोगों के जहन में उतर गए ।
मानव क्या, वन, वारी,
बरखा, बादल सब नम पड़ गए,
पर उस संगिनी, उस रुक्मणी,
उस गृहिणी की
व्यथा कम न कर सके ।
वंचना के निर्मम तीर
निकालने की चेष्टा न कर सके
क्योंकि
ये तीर निकाले नहीं जाते
बस हृदय को झेलने पड़ते
न झिले तो छलक ही जाते ।
पर वंचक
ये विध्वंस देखते ही रहते,
धरणी यूँ ही अश्रुओं से
गीली होती ही रहती ।