इंतज़ार
इंतज़ार
यकीन की शाख पर बैठे
वफ़ा का परिंदा नींद के इंतज़ार में
सदियों से रतजगे का आदी बन गया है
एक वादे की कशिश ने
आँखों को सोने नहीं दिया
ठहर गया है उसकी ज़िस्त में पतझड़
रुठे हुए चाहत के मौसम ने
प्रीत की बसंत से जुड़ने नहीं दिया है
कहाँ पता था ये इश्क़ क्या बला है
हो तो गया ज़ालिम
फिर दिल ने चैन ओ करार से
नाता ही तोड़ लिया है
आशिक की आँखों में
दिखें उसको दोनों जहाँ
इबादत में मन ने महबूब को
खुदा जो चुन लिया है
बेतरतीब सी बिखरी है जिंद अब
आहट ना कोई साया है
मंद हो रही साँसों की रफ्तार ने
मौत का मंज़र देख लिया है।