इंतज़ार करती मैं
इंतज़ार करती मैं
अँधेरी रात का वो आखिरी पन्ना
ना जाने कैसे खुला रह गया
फिर किसने, कब, कहाँ और कैसे पढ़ा
नहीं जानती
बस सब बार-बार वही दोहराते रहे
जो मैं कभी लिखना ही नहीं चाहती थी
मेल से बेमेल का सफ़र तय किया मैंने
फिर उलझनों के बीच फँसी रही
और पन्ने फड़फड़ाते रहे अतीत के
जैसे निगल रहे हो वर्तमान
कि जैसे कोई भविष्य ही ना बचा हो
उठने की हर कोशिशों में नाकाम
गिर पड़ती हूँ, दलदल में
फँसती जाती हूँ जैसे
एक बड़ी सी हवेली, बड़े से कमरे
पर बिना खिड़कियों वाले
और दम घोटती हवाएँ
जैसे किसी के वश में हो
और मुझे जीवित रखने की
कोशिश करती रहती
जैसे और कुछ हद तक करना चाहती हो
मैं फिर भी बंद दरवाज़े के भीतर बैठी
किसी कहानी की ख़ातिर
बाल बिखराय, किसी का इंतज़ार करती
किसी उम्मीद के साथ
वो मन का भ्रम हो जैसे
पर भ्रम ही सही, कुछ हो तो वैसे
निकल जाने को, भाग जाने को
तैयार, शरीर ही नहीं आत्मा भी
सदियों से उस शून्य का इंतज़ार
करती मैं।