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Amit Kumar

Romance Classics

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Amit Kumar

Romance Classics

इंतेहा

इंतेहा

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दिलों की बात निकली

और बेदिली हो गयी

उसके भी क्या कहने दोस्त

जो उसकी थी ज़िन्दगी


अब वो किसी की हो गई

बहुतों के दिल से खेला है वो

अब उसके दिल की भी ईद मुबारक़ हो गई

कई बार उसे टोका है मैंने

मैंने उससे जो अब तक कहा


आज वही बातें उस पर

वक़्त के तरीके से ज़ाहिर हो गई

कोई बेगुनाह हो तो उस मालिक!

का दिल भी जलता है


ये उसी की नाचीज़ बेहयाई

अब उसकी क़ज़ा हो गयी

जिस शख़्स पर उसने ग़ौर की

उसी की मुहब्बत उससे


अब बेज़ार सी हो गई

अली कहो या कहो वली

वो सबका मालिक! एक ही है

चाहे जिस निग़ाह से देख लो


चाहे जिस ज़ुबाँ से बयाँ करो

सूरज की चमक और

फूलों की महक कभी छुप न सकी

जो समझता है बेवकूफ मुझे


मैं उसकी फिराक़दिली का क़ायल हुँ

उसकी यही बात है जो

अब तलक़ मुझे बहलाये हुए है

उसको कुछ भी न कहना मेरे दोस्तों


वो जो भी है वो जैसा भी है मेरा वो महबूब है

बस उसकी इतनी शख़्सियत मेरे लिए क़ाबिल ऐ ग़ौर है

वो अपनी अदा से कुछ भी कहे न कहे

मेरे लिए बहुत अहमियत रखता है


उसकी यही अदा मनसूब ऐ दिल है

उसकी यही बात मेरी ज़ुबाँ

तुम चुप रहो या न रहो

मेरा उससे इश्क़ एक ईबादत है

अब तुम इसे कुछ भी कहो मेरी इब्तदा भी वो है

और मेरी इन्तहा भी वो है।


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