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इक आरजू

इक आरजू

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जीवन साँसों से चलता,

इसका निज कोई धर्म नहीं

डूबना व्यर्थ आँसुओं में,

तूफानों का कोई वजूद नहीं।


खुद से खुदी को मिटाकर,

बेबसी किस मोड़ लाई भला

गर ग्रहण से सूर्य होगा विवश,

कैसे अंधेरा दूर होगा भला।


एक उम्र गुजारी उम्मीद के सहारे,

अब ये दगा देने को है

हर सहर भी अब शव लगे,

आरजू बस ये

आरजू न रहे या उम्र न रहे।


रात के गर्भ में ही

दिन के उजाले होते

अज्ञानता के तम चीर

ज्ञान की रौशनी होती।


कर सको तो बस इतना करना,

कुछ औरों की कुछ अपनी खातिर जीना

उत्तेजित साँसें उच्छंश्वल जीवन,

स्थिर सॉसें स्थितप्रज्ञ जीवन।


हर कदम ही मंगल उत्सव,

हर कदम में शाश्वत जीवन।


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