हक
हक
तुमको अपना कहने से डरने लगा
ख़ुद से कितना खौफ़ वो करने लगा
सोचकर लिखे तो अब वह क्या लिखे
व्यक्त हर शब्द पे कोई मत करने लगा
खुदकी अपनी जिंदगी में झांकिए
औरों में अब नया क्या मिलने लगा
खोल कर रख दी किताबें खुद-बा-खुद
वक्त जाने कितने पैबंदों को सिलने लगा
फासले होते नही बन जाते हैं
खुद पे ज्यादाऔरों का हक होने लगा
ढील जितनी डाल के उढ़ने दी पतंग
तंज उतना हवाओं पे होने लगा
माना तूफां आया था कल रात में
कच्ची दीवारों का घर गिरने लगा
रात में जिस घर पर खिली थी चांदनी
बाद तूफां के कहर बढ़ने लगा
वक्त नाजुक हो तो रिश्ते बाँध लो
काम का ताबीज़ बड़ा होने लगा
जलजले भी अदब से झुक जाएंगे
मिल्लत दीवार जब बन जाने लगे
जलजले भी अदब से झुक जाएंगे
मिल्लत दीवार जब बन जाने लगे
वक्त नाजुक हो तो रिश्ते बाँध लो
काम का ताबीज़ बड़ा होने लगा।