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vinod mohabe

Abstract

4  

vinod mohabe

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हाँ मै विधवा हुं ”

हाँ मै विधवा हुं ”

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हां ----मैं विधवा हूँ मैं 

अनाथा, पतीहीना कहलाती हूँ


सबके त्ताने मैं सुनती हूँ

बंद कमरे में छुपकर रोती हूँ

गलती से किसी को दिखूँ तो 

सबकी गाली मैं सुनती हूँ

त्यौहार में रंग-बेरंगी कपड़े लाते है

सफेद कपडा फेंक मुझे पहनाते है

हां ----मैं विधवा हूँ मैं 

अनाथां, पतीहीना कहलाती हूँ


आज फिर मैं रोई हूँ, 

देख शहीद के तिरंगा कफन को

सांसें पलभर रुक जाती 

फिर वो सिंदूर, मंगलसूत्र की याद दिलाती 

सुनकर फटाकों की आवाजें कानों में 

तड़तड़ चूड़ियाँ फुटती है हाथों में 

हां ----मैं विधवा हूँ मैं 

अनाथां, पतीहीना कहलाती हूँ


बतला दो अब क्या गलती थी मेरी 

बात बड़ों की क्या ना मानी थी

सात फेरो में कसमें खाकर 

जिंदगी का नया सवेरा पाई थी

शोभा बनी थी वो रंग-बेरंगी साड़ियाँ माथे की वो बिंदिया,

होठों पर लाली सजाई थी 

खो गया सब कुछ अब हां

मैं विधवा हूँ मैं 

अनाथां, पतीहीना कहलाती हूँ


समाज क्यो नहीं मुझे अपनाता 

फिर से लाल जोड़े मेंं क्यों नहीं बांध देता

बनाये रिश्तों को फिर से क्यों नहीं सजोडता 

अधुरे जीवन मेंं क्यो खुशियाँ नहीं लाता 

बेढंग जिंदगी मेंं रंग क्यो नहीं भरता

समाज मेंं विधवा को क्यो सन्मान नहीं देता, 

प्रश्न पूछती हूँ मैं ये सब सारे

हां ----मैं विधवा हूँ मैं 

अनाथां, पतीहीना कहलाती हूँ।


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