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हरीश कंडवाल "मनखी "

Abstract

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हरीश कंडवाल "मनखी "

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गुरूजी

गुरूजी

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माँ प्रथम गुरु जो जन्म से पहले ही सिखाती

गर्भ में ही प्रेम की परिभाषा हमें समझाती

जन्म के कुछ माह बाद मुस्कराना बताती

माँ के घुटने प्रथम पाठशाला कहलाती।


घर के सब परिजन बोलना चलना सिखाते

पिताजी भले बुरे का पाठ हर रोज पढ़ाते

दादा दादी नाना नानी आदर्श कहानी सुनाते

यह सब हमारे परिवार के शिक्षक कहलाते।


विद्यालय हमारी जीवन की दूसरी पाठशाला

जँहा मिलता हमको ज्ञान से भरा प्याला।

अक्षर, शब्द, वाक्य से शुरू होती पढ़ायी

 संयम, नियम, अनुशासन से ही तो अक्ल आयी।


गुर

ुजनो द्वारा दिया जाने वाला स्नेहपूर्ण शिक्षा

जीवन में आगे बढ़ने के लिए दिखाता रास्ता

गुरु की यहीं होती चाहत, शिष्य उनसे आगे बढे

वह तरक्की कर उनका नाम रोशन जरूर करें।


बिन गुरु नहीं मिलता हमें कोई भी ज्ञान

इसलिए गुरु को प्रभु से पहले होता प्रणाम

गुरु ही तो ईश्वर की महिमा को हमें बताते 

जीवन का हर दर्शन वह हमको सिखलाते।


गुरुजनो के बारे में हमनें ज्यादा क्या कहना

 जैसे सूरज को दीपक का प्रकाश दिखाना

जो करते हैं खुद दूसरों के जीवन को रोशन

उनके जीवन को हमनें भला कैसे रोशन करना।


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