गुरु -प्रेम।
गुरु -प्रेम।
समझ न सकता इस दुनिया में, कौन अपना है कौन पराया।
जिसको जितना चाहा दिल ने, उसने ही मुझको गैर बनाया।।
प्रेम न करो दुनिया से इतना, विष बन तुमको ही तड़पाये।
लगन लगा ले उस प्रभु से, जो तुमको इस भव से पार लगाये।।
गृहस्थी में विरक्ति जिसने है जानी, उसने ही सच्चा प्रेम है पाया।
जीवन फलीभूत उसी का होता, जिसने गृहस्थी में इसको है अपनाया।।
प्रेम करना प्रभु ने ही सिखलाया, फिर भी तू उसको समझ न पाया।
ऋषि -मुनि भी गृहस्थ में रहकर, प्रेम से ही प्रभु को है रिझाया।।
निष्कपट भाव से प्रेम करके तो देखो, सब में वह प्रभु ही समाया।
" नीरज" तो गुरु प्रेम का प्यासा, जिसने सबसे प्रेम करना सिखलाया।।