ग़ज़ल
ग़ज़ल
दिल के अंधेरे कमरों की बन गए रानाई तुम
दिनभर चिपके रहते हो जैसे कि तन्हाई तुम
मंजर मौसम बूंदें बारिश भीगी छत हम दोनों
कितने ख्वाब दिखाते आँखो की बीनाई तुम
उम्मीदों के जंगल का इक-इक पत्ता टूट गया
हिज्र के सूखे मौसम में हो बहती पुरवाई तुम
जाने कितने दर्द पुराने फिर आँखों में उभरे है
बरसों बाद आज दिखे हो कैसे हो सौदाई तुम ।