ग़ज़ल..४
ग़ज़ल..४
साहिब रिश्ते तो अब नासूर होते जा रहे हैं।
वो मैय्यत से मेरे यूं जैसे दूर होते जा रहे हैं।।
हम बैठे रहे उम्मीद के उसी आशियाने में।
जहां लोग गुरूर से चकनाचूर होते जा रहे हैं।।
क्या भाई क्या बहन सब फ़रेब हैं ज़नाब।
एक हम ही हैं जो यहां मजबूर होते जा रहे हैं।।
मुकद्दर ने ये किस मोड़ पर ला खड़ा किया है।
क़रीब थे जो दिल के वही मगरूर होते जा रहे हैं।।
ए खुदा अब ज़िंदगी जी़ने का शौक नहीं मुझे।
टूटे नसीब से ही मेरे सारे क़सूर होते जा रहे हैं।।
इस "गुलशन" के चाहतों का सिला कुछ यूं मिला।
मिटाकर मिल्कियत मेरी लोग मशहूर होते जा रहे हैं।