ग़ज़ल....17
ग़ज़ल....17
बहर-2122 2122 2122 2122
काफ़िया-"अत",रदीफ़-"कर रहे हैं"
लोग अब भी तो तुम्हारी ही शिक़ायत कर रहे हैं ।
ये मिरे ही शहर में मुझसे ख़िलाफत कर रहे हैं ।
कौन मेरा कौन तेरा कौन इसका कौन उसका,
सब फरेबी हैं यहॉं जिनकी वकालत कर रहे हैं ।
कौन है जो इश्क की बोली लगाये यूॅं यहॉं पर,
हम उसी बाज़ार में देखो आज शिरकत कर रहे हैं ।
जो ज़ुदा होते नहीं थे दो पलों को देख लो अब,
बेवफ़ाई ओढ़कर कैसे सियासत कर रहे हैं ।
जब यहॉं इंसान ही कंगाल हो इंसानियत पर,
फिर ख़ुदा उन पर हि कैसे आज रहमत कर रहे हैं ।
ज़िन्दगी में ज़िन्दगानी को जियो बेखौफ़ होकर,
जो जिये ऐसे वही तो अब क़यामत कर रहे हैं ।
जो मिरी हर आरज़ू का ख़ून करते थे यहॉं पर,
हम उन्हीं खातिर ख़ुदा से अब इबादत कर रहे हैं ।