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ANIRUDH PRAKASH

Abstract

4.5  

ANIRUDH PRAKASH

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Ghazal No.4 बुरे वक़्त से बड़ा कोई मुदर्रिस नहीं

Ghazal No.4 बुरे वक़्त से बड़ा कोई मुदर्रिस नहीं

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माँ का साया सर से उठ जाने से जाती नहीं

तपिश फिर कितनी भी काली घटा छाने से


मेरी ख़ामोशी को मेरी बेबसी न समझ आता नहीं 

सैलाब समंदर में फ़क़त उसमें हाथों को थप थपाने से


बुरे वक़्त से बड़ा कोई मुदर्रिस नहीं 

समझा है कौन यहाँ दूसरों के समझाने से


बेखुदी में तो कभी भूले नहीं हम तेरे घर का रास्ता 

सो बिन पीए निकले हम आज मय-खाने से


चूर चूर हो जाता है गुरूर आईने के रूबरू आने से 

 बस यहीं टूटता है पत्थर शीशे के टकराने से


ज़माने भर के पत्थर और एक शीशा-ए-दिल 

कब तक बचाते हम उस

को टूट जाने से


जिसने भी पीया तेरी आँखों से जाम 

मुस्तक़िल नफरत हो गयी उसे मय-ए-खाने से


कितने मेरे अपनों के ख़्वाब हो गए मुकम्मल 

एक मेरे ख़्वाबों के बिखर जाने से


मर्ज़-ए-इश्क़ छुपता कहाँ है छुपाने से कौन

रोक पाया है खुशबू-ए-गुल को फिज़ा में फैल जाने से


गुमान में था आएगा सैलाब मेरे रुखसत-ए-जहाँ से 

ज़रा सी हलचल भी ना हुई समंदर में मेरे डूब जाने से


टूट के बिखरा था कि बिखर के टूटा था ये इल्म 

होता नहीं फ़क़त ख़ाक-ए-बदन को हाथ लगाने से


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