घड़ी के मानिंद
घड़ी के मानिंद
मैं घडी के मानिन्द
मैं घडी के मानिन्द
चौबीस घंटे चलती
रुकती न साँस लेती
हर पल चलती फिरती
मैं घडी ............
सुबह को उठकर
आँखें मलती अल्साती
मन कहता थोड़ा
और सो ले मगर
बच्चों के स्कूल की
घंटी कानों में बजती
मैं ................
झटका दे आलस से
लड़कर मूँह पर पानी
के छींटे दे मारती
शरीर को कर्तव्य से
परिचित कराती
मैं ............
किसी को मेरी फिक्र
नहीं मैं फिक्र से सबकी
फिक्र रख खुद को
मजबूत और मजबूत
कर घर के कामों में
जोगन सी ज़ुट जाती
मैं ................
सूई सी बन घडी की
भांति खटर ..पटर
करती दिन भर
शाम को इतना
थक जाती ज़ाते ..
ज़ाते विस्तर पर
कल क्या बनाऊ ?
यह,योजना बनाती
मैं ................
रात को बीच बीच में
कहीं दिन न फैल जाये
बार ..बार जागती
मैं ...............