गैरों को तो समझा भी दूँ
गैरों को तो समझा भी दूँ

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ऐ दोस्त
गैरों को तो समझा भी दूँ
अपने जख्मों का हिसाब
पर अपनों का क्या करूँ
जो लिए फिरते है हाथों में नमक
जब भी भूलने की करता हूँ कोशिश
तभी आ जाता है अपना कोई
और कहता है
अरे क्या हुआ, कैसे हुआ
इतना सुनते ही फिर
हरा हो जाता है ज़ख्म
चुप रह नहीं सकता
वरना लग जाएगा
एक और इल्जाम की
देखो हो गया न घमंड
एक तो ज़ख्म दूसरा घमंड
कहा तक दूंगा हिसाब
इस हिसाब किताब के फेर में
वक़्त गुजरता जा रहा
और हम यूँ ही चलते जा रहे.