गांव
गांव
गांव शब्द नाम लेते ही जेहन में हरा भरा फसल याद आ जाता है।
निमिया पेड़ के बाई ओर अपना कच्चा छप्पर वाला मड़ई याद आ जाता है।
जहां हरे भरे पौधे मुस्कुराते थे और पगडंडी इठलाती थी।
ज्यादा शोर करने पर दद्दा की लाठी उठ जाती थी
जब बाजार से बग्घी पे बैठ हम पगडंडी से गुजरते थे
जब कोई बुजुर्ग मिल जाता तो झट बग्घी से उतरकर दोनो पैर छू लेते थे।
गांव की मिट्टी से हमे सोंधी सुगंध जब आती थी
कुम्हार चच्चा का मड़ई आते ही मन प्रफुल्लित हो जाती थी।
गांव से संस्कार एक दूजे से जुड़े से थे सब परिवार एक दूसरे में घुले मिले से थे
अब शहर में सब अपना अलग अलग घर बसाए है
दादा दादी को गांव छोड़ के सारे संस्कार अब भूल आए है।
वह बसंत ऋतु जब आया था कैसे रास्ते में मयूर मग्न होकर अपना नृत्य दिखाया था
अपना गांव आते ही जैसे मन प्रसन्न हो जाता था
अब तो गांव भी जैसे सिमट सा रहा है।
जैसे लगता अपना देश बदल सा रहा है।
अब वह अपनी कच्ची मड़ई टूट के मकान का रूप ले लिया है।
जैसे लगता अब वहां अपनापन भी खत्म हो कर अंजान सा रूप ले लिया है
अब वह सोंधी सुंगंध खो सी गई है अब अपनी पगडंडी ने भी रोड़ का रूप ले लिया है।
अब अपना गांव बदल गया है।
अब अपनापन का भाव भी खत्म हो गया है।