एक झूठा सत्य
एक झूठा सत्य
अंजुरी-अंजुरी दीप जलाये बैठा था मन,
युग-युग की तनहाइयों को सहता था मन,
मरीचिका के भ्रम में भटकता था मृग-मन
बिखरे स्वप्नों को स्वयं सहेजता था मन,
मूक दीपशिखा सा जलता तन लिए हुए,
चुभते शूल सा अहसास मन में लिया हुए,
एक झूठा सत्य .....सर्प-दंश सा,
समुद्र-मंथन से निकले गरल सा,
क्षण-क्षण हर पल को विषाक्त कर गया
एक अंतहीन वनवास का आभास दे गया
इन्द्रधनुषी स्वप्नों को रंगहीन कर गया
हृदय की व्यथा -वेदना बढ़ाता ही गया
