एक अप्रेषित पत्र
एक अप्रेषित पत्र
निंदयाती आंखों के ख्वाबों
थोड़ी-सी तुम जाग रखना
कुम्हलाते कमलों की सांसों
थोड़ा तुम अनुराग रखना
पतझड़ का कीड़ा ना लागे
कहीं भरोसे को,
मन-मोगरे में यकीं का
तुम थोड़ा-सा फाग रखना
मैं बस आ ही गया समझो
आंखों की पलकों तक
चाहत की सारंगी में तुम
थोड़ी-सी राग रखना
फिर खिलेगी नेह की बगिया
इसके मान की पाग रखना
गिद्ध दृष्टियां जाग रही है
नजरों को कुछ घाघ रखना
प्रीत सरोवर सूख न जाए
थोड़ी तो तुम आग रखना
लग न जाए नजर किसी की
काजल वाला भाग रखना
मैले मन का पहरा पसरा
नजरों में तुम दाग रखना
लो मैं आ गया नयनों में
प्रीत-नेह अथाग रखना
प्रीत बावरी लो संभालो
नेह की थोड़ी भांग रखना
रात तुम्हारे अब हवाले
मन ना कोई विराग रखना ।
लो संभालो !
ख्वाबों में लिखा खत
तुम्हारे नाम का
जो अभी अप्रेषित पड़ा है
यादों के लिफाफे में !