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Pradeep Sahare

Tragedy

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Pradeep Sahare

Tragedy

दस्तक

दस्तक

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मौत अगर दे दस्तक,

मेरे दरवाजे पर।

पुछूंगा उससे,

क्यों !

तकलीफ की मुहतरमा,

मेरे घर आने की ?

मेरे दरवाजे पर,

दस्तक देने की।

क्या कभी जिन्दा,

देखा ?

लाश बनकर,

अकड़ा रहा।

ना जाने,

किस डर से,

जकड़ा रहा।

अपनी पथरीली आँखों से,

देखता रहा रिश्तों का खून।

भीड़ की आँखों से,

देखते रहा बूझता चिराग,

किसी रोशन घर का।

देखते रहा,

अबला का शील हरण,

इन मरी हुई आँखों से।

जलाते रहा मोमबत्तियाँ,

मरे हुए दिल से ।

जलाता रहा अपनों को,

मरे हुए पुतलों के लिए।

एक बार भी,

ना देखा छूकर।

क्या हूं मैं जिन्दा !

बस होते गया,

हर बार शर्मिंदा।

एक बार भी ना बहें,

आँसू इन आँखों से।

बस,

काफी हैं यह सबूत,

मरा होने के लिए।

क्यों !

तकलीफ की मुहतरमा,

मेरे घर आने के लिए।



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