धुआँ
धुआँ
बस धुएँ में
धुँआ होती जिंदगी
कितनों की अक्ल
छीन लेती ये ज़िन्दगी
सब सोचते कि हम
है जलाते इसको
बस इसी वहम में
गुज़रती ये ज़िन्दगी
न जाने कब इसकी
गुलाम हो गयी ज़िन्दगी
अपने साथ अपनों को भी
दाँव पर लगाती ज़िन्दगी
सब धुआँ धुआँ सा है
चारों ओर इसके
बस यूं ही खत्म होती ज़िन्दगी