दहलीज़...
दहलीज़...


ये प्यार कोई खेल नहीं,
अपनी चाहत की नुमाइश न करें !
दिल की बात जब बाज़ार तक पहुंचती है,
तभी रिश्तों में दरारें पड़ जाती हैं...।
क्या कोई दौलत-ओ-शोहरत से
दिल की बाज़ी लगा सकता है ?
ये प्यार-मोहब्बत तो ऊपरवाले की देन है ;
इसका व्यापार करने वाले कभी
इज़हार-ए-दिल कर ही नहीं पाते...!!
जब कोई पूरी सादगी से
रिश्ता क़ायम रखता है,
सिर्फ तभी दिल-ए-गुलशन में
बहार आती है,
नहीं तो, सारा आलम बस खाक है।