दास्तां -ए -अश्क़
दास्तां -ए -अश्क़
मैं किन -किन अश्कों की दास्तां लिखूँ,
कोरे कागज पर काली स्याही से कैसे मैं सच लिखूँ ,
हिम्मत कर क़लम उठाई,
अश्कों की स्याही से नम कागज़ पर कवि होने का फर्ज़ निभाई,
अश्कों से भरे नैनों से फिर मैंने कुछ यूँ लिखा।
जमीं पर गिरे अश्कों को मुट्ठी में भींच,
आसमां में मैंने सच्चाई लिखा।
ये अश्क़ थे उन लोगों के, जो बेगुनाह मारे गए
सिर्फ मज़हब के नाम पर,
ये अश्क़ थे उन लोगों के जो मारे गए रंग के नाम पर,
ये अश्क़ थे उन लोगों के जिन्होंने सच को सच कहा,
ये अश्क़ थे उन लोगों के जिन्होंने जमूहरियत के खिलाफ इंकलाब कहा,
ये अश्क़ थे उन लोगों के जो भूख से मर गए, मर गई इंसानियत उस दिन जब पटरियों पर लाशें पड़ी थी और पास ही कुछ रोटियाँ भी पड़ी थी,
समझ ना पाई लोग रोटियों के खातिर मरे थे
या चलते -चलते इतना थक गए थे कि मंजिल ही भूल गए थे,
क्या फर्क पड़ता उन लाशों से वो तो चंद ही थे,
रोज अनगिनत मरते हैं जमूहरियत की लापरवाही से,
कैसे बयाँ कँरू उन माँ की आँखों से गिरते अश्कों की दास्तां,
जिनकी बेटियाँ तड़प -तड़प कर दम तोड़ देती हैं,
कभी किसी की हवस की शिकार बनकर,
कभी दहेज़ की आग में जलकर, हुम्म्म्म्म !...............
आह !अभी ख़त्म नहीं हुई दास्तां -ए -अश्क़,
इस दास्तां में शामिल है, उन लोगों के अश्क़ भी
जो किताबों को छोड़, पत्थर उठा लेते हैं,
फिर उन्हीं पत्थर के नीचे दब जाते हैं,
जो दो मुल्कों की लड़ाइयों में गोलियों से छलनी हो जाते हैं,
फिर तिरंगे में लिपटे सब की आँखे नम कर जाते हैं,
बस अब मेरी कागज़ अश्कों से भींग चुकी हैं,
दास्तां तो बाकी अब भी है बहुत पर आगे लिख ना पाऊँगी।