चाँदनी का आँचल
चाँदनी का आँचल
रात भर चाँद से रूठी
पौ फटते ही जा बैठी
चाँदनी, उषा के पास।
उसे क्या पता था कि
उसकी यह हरकत नहीं
आएगी सूरज को रास।
सूरज की तपती धूप ने
जला डाला चाँदनी का
चमचमाता, खूबसूरत
सितारों से भरा आँचल।
लाख चाहा उषा ने कि,
सँवारे चाँदनी का आँचल,
बादलों से भी लिए उधार
कुछ पैबंद, कि काम आयें
सुधारने, चाँदनी का आँचल।
पर बादल थे कुछ, मनमौजी,
इधर-उधर उड़ते हवा के संग,
उन्हें क्या पड़ी थी कि देखें,
रूठी थी चाँदनी अपने चाँद से
या रागिनी अपने प्यारे राग से।
वो तो मस्ती में राग अलापते
उड़े जा रहे थे हवा के संग-संग।
दिन भर झुलसती दोनों सखियाँ
आखिर थक-हार कर पहुँची
शाम को, संध्या के पास।
खूब रोई चाँदनी जार-जार
अपने जले हुए आँचल पर।
संध्या ने कंधा दिया उसे
चुप कराया, उड़ाया अपना
आँचल, सितारे टाँक कर।
ओढ़ कर नया आँचल पहुँची
चाँदनी अपने साजन के पास।
नए आँचल के घूँघट में चाँद ने
नहीं पहचाना, अपनी चाँदनी को।
घूँघट के आँसू जब शबनम की
बूंदों से मिले तो हुआ अहसास
चाँद को, कीमती आँसूओं का
लगाया गले चाँद ने चाँदनी को,
तब से रोज़ चाँदनी संध्या से
गले मिल कर चाँद से मिलती है,
और पौ फटते ही उषा को अपने
गले लगा कर विदा होती है।