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बसंत सा रहते मौन

बसंत सा रहते मौन

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वे बसन्त - सा रहते मौन 

जीवन जिनका सेवा-व्रत है!


वृन्तों पर फूलों का उत्सव,

धरती पहने साड़ी धानी । 

आम्र-पत्र ढँके मन्जरियों से,

भौरें गुंजायें प्रेम-कहानी। 


प्रकृति दे रही है वरदान

कण-कण पसर रहा अमृत है।

वे बसन्त-सा रहते मौन 

जीवन जिनका सेवा - व्रत है।


पीली सरसों की क्यारियों से,

झाँक रहा, कौन रंग बन।

गेंदे के फूलों में विहँसता,

बरस रहा जीवन-तरंग बन।


धरती जिसका बनी बिछौना,

विस्तार यह सम्पूर्ण जगत है।

वे बसन्त-सा रहते मौन 

जीवन जिनका सेवा-व्रत है।


कोयल बाग में कूक रही है,

गूँज रही है ध्वनि दिगंत में।

जगा रही वह हूक हृदय में,

कंत दूर हैं, इस बसन्त में।


अपने स्वभाव में मस्त मगन 

अपनापन लुटा रहे सर्वत्र हैं।

वे बसन्त-सा रहते मौन 

जीवन जिनका सेवा-व्रत है।


जो जूझ रहे दुश्मन से

सीमा पर सीना ताने।

उनका हर मौसम बसंत है,

वे रण-चंडी के दीवाने।


मौत से टकराने वालों के,

भाल सजा चन्दन, अक्षत है।

वे बसन्त-सा रहते मौन 

जीवन जिनका सेवा-व्रत है।


राजनीति में देशनीति हो

आओ लें हम आज सपथ।

देश मान ना झूकने देंगें,

भले सजा हो अग्निपथ।


परमार्थ में जीवन अर्पण

स्वयं से उँचा ये जनमत है।

वे बसन्त-सा रहते मौन 

जीवन जिनका सेवा-व्रत है।



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