बरगद की छांव
बरगद की छांव
बरगद की छांव
परिंदों का आशियाना
राहगीरों का आश्रयस्थल
नादान हैं वे बच्चे
जो ना जाने महत्ता
बरगद हम
मातपिता की
पारिवारिक दे विस्तार
बरगद बन मातपिता
वे है जडे़ हमारी
हम तो हैं जटाएं
उर्जित होती शक्तियां
बरगद सदृश्य मातपिता
संबल है वे घर का
प्रफुल्लित करें दे छांव
बरगद बन बना दे
घर को वे गुरूकुल
सीख सदा ही उनकी
करती है परिपक्व हमें
वेगवान हो तूफान
दहाड़ती रहे मुश्किलें
मचलती रहे आंधियां
समेटते वे भुजाओं में
मार्गदर्शक रहे सर्वदा
शुभ चिंतक हर कदम
दूरदर्शिता सदा ही उनकी
रक्षित करती कदम कदम
इंसा प्रवृति है विचित्र
जब तक मिले खुशियां
जाने ना कौन सूत्रधार
वटवृक्ष मातपिता को
आज पहुंचा रहे वे
उनको ही वृद्धाश्रमों में
पनपे ही जिनकी छांव में
विष डाल रहे जड़ों में
जीवन जिनसे चहका
सुवासित रहे हर पल
मधुसिक्त रहे सदा ही
हो रहे उनसे ही जुदा
जो बरगद से मातपिता
कहलाते थे चारों धाम
उनको ही बनाया मोक्षधाम
मानवता बदली दानवता में
स्वार्थ कपट छलघाती
कर्तव्यों को दे तिलांजली
उन्हीं से हो रहे विमुख
ओढ़ कर खामोशियां
स्मृतिकुंठ है मातपिता
जब ना रहेगी छांव बरगद की
उनकी वो पर्याय भरी थपकी
ढूंढते रहेगें परिंदे बन आशियाना
तब यादों में कैद तस्वीर उनकी
देती। रहेगी एक सुकून हमें
क्योंकि वे तो थे कल्पवृक्ष
अपरिभाषित हैं
आभासित है, अतुलनीय है।