बरगद की छाँव
बरगद की छाँव


बरगद की छाँव में , छोटे से उस गाँव में , याद आते है वो झुलो के दिन, पेड़ पे बैठी कुह-कुह करती कोयल की, वो कोयल की आवाज़ में मैं अपनी आवाज़ मिलाती थी, कोयल की तरह ही चहचहाती थी ।
वो ठन्डी के दिनों में स्कूल में तुम्हारे लिए गुड़ -मुँगफली लाती थी, अपने हाथों से छील कर तुम्हें मैं खिलाती थी ।
वो शाम को हम बरगद के पेड़ तले हम खेला करते थे, रात को उसी बरगद में भूत है, माँ कहानियाँ सुना कर डराया करती थी ।
जब बडे़ हुए तो छतों की मुँडेरों से इक दूजे को ताका करते थे , बरगद के पेड़ तले मिलने का वादा करते थे ।
तुम्हारे काँधे सर रख कर आँखे मूँद लिया करती थी, अपने हाथो से तुम मेरे बालो को स
हलाया करते थे ।
जब मैं नदी पे पानी लेने जाती, तुम भी बहाने से वहाँ सै गुज़रा करते थे, वो बागों में जाकर मेरे लिए कच्चे आम तोड़ा करते थे ।....आज भी उस कच्ची अम्बी का स्वाद मुँह में आता है, तुम्हरे हाथों से तुड़व कर खाने को मन ललचाता है ।
वो खेतों -खलिहानों में घूमना याद आता है, वो तुम्हारा होठों को गोल कर के दूर से ही चूमना याद आता है ।
वो नैनों का नैनों को बातें समझाना याद आता है ।
इस शहर की आपाधापी में ना जाने सब कुछ कहाँ खो गया, यहाँ तो इक भी पेड़ नज़र ना आता है, चलो फिर से गाँव चलते हैं, फिर से वही बातें दोहराते हैं, जहाँ बरगद के पेड़ तले तुम और मैं नहीं हम मिलने जाते हैं ।