बोतलों में हँसी ढूंढता हूँ
बोतलों में हँसी ढूंढता हूँ
मैं अपने पास फैली
बोतलों में हँसी ढूंढता हूँ।
अपने दर्द को उसमें डुबोता हूँ,
उसमें घोलता हूँ,
और उससे खुशी के पल
निकालता हूँ।
कोशिश करता हूँ,
उसे संजोकर रख लूँ,
समेटकर बंद कर दूँ, संदूक में।
और जरूरत पड़ने पर
उस समय निकालूँ,
उस उस समय निकालूँ,
जब घेरने लगते है,
आँसुओं के घेरे,
संवादों, विवादों और
दुर्वादों की बर्फ पर...
और बर्फ पड़ जाती है।
लेकिन वे पल मुठ्ठियों में,
रेत की तरह फिसल पड़ते हैं।
मैं फिर खुशी को ढूंढने की
वैसी ही कोशिश करता हूँ
पर अब हँसी भी नहीं मिलती है।
जिंदगी कहीं फिसलती है,
और फिर नहीं मिलती है।