बिखरती जिंदगी
बिखरती जिंदगी
टूटती हैं कश्तियाँ
माँझी के रूठ जाने से
रुकती हैं साँसे भी
दिल के रुक जाने से
माना की सैलाब बहा रहा था हमें
पर हम क्यों बहे जा रहे थे धार में।
पतवार चलाना भी आना चाहिए था हमें
हम माँझी कैसे बन गए बिन ज्ञान के
कैसे रुुकेगा तबाही का ये मंजर अब
खुद माँझी बैठ गया जो थक हार के
कश्तियों को कोई इल्जाम नहीं देना
जो डुबो दें तुम्हें खुद टूट कर मजधार में
कुछ भी मुश्किल नहीं यहाँ ए इंशा
कुछ कर गुजर जा तू इस धार में
थाम पतवार अपनी कमजोर होती बाँहों में
बस दिशा दे दे अपने परिवार को नॉव में
कहाँ तक बहेगी तेरी कश्ती मजधार में
किनारे खड़े है लिए हार तेरे इंतजार में।।