बहनें
बहनें


हुआ करती थीं.....
कभी बहनें भी इफ़रात में,
कुछ ददिहाल तो कुछ ननिहाल में।
होती थी उनसे ही हर घर में खुशहाली,
हर खिखिलाहट पे उनकी मनती थी दीवाली।
नाम भी इनके एक जैसे से होते थे,
हर घर में एक गुड़िया या छुटकी हुआ करती थी।
इन बहनों के भी अपने अपने गुट हुआ करते थे,
उम्र के फासले तय जिन्हें करते थे।
अनुजा तनुजा की सन्देशवाहक होती थी
और..... तनुजा अपनी अनुजा की ढाल हुआ करती थी।
कुछ बिनाका के गीतों संग रोमानी हुआ करती थीं,
कुछ किशोर के नग्मों की दीवानी हुआ करती थीं।
जाड़े की धूप में, कॉलेज से लौट के,
न जाने कितने किस्से ये साझा किया करती थीं।
इक दूजे के ख्वाबों की ये राज़दार होती थीं,
चाँद रातें इनकी शोखियों से गुलज़ार होती थीं।
सावन में मेहंदी की हरी हरी पत्तियों को,
सिल बट्टे पे बैठ के पीसा ये करती थीं।
कभी चाय का पानी तो कभी चीनी ये
मिलाती थीं,
रंग जिससे गहरा हो हर वो कवायद करती थीं।
देर रात जाग के झाड़ू की सींकों से,
एक दूजे की हथेलियों पे बूटियाँ बनाती थीं।
भाइयों की शादियों में लशकारें ये मारती थीं,
बहनों की शादियों में रौनक इनसे होती थी।
शादियों में साझी तैयारी इनकी होती थी,
किसी की कुर्ती पे किसी की चुन्नी होती थी।
एक ही कटोरी से उबटन ये लगाती थीं,
हल्दी लगा एक दूजे को खुद ही खिलखिलाती थीं।
श्रृंगार भी इन बहनों का अलहदा कहाँ होता था,
एक ही डिबिया का काजल, हर आँख में सजा होता था।
एक दूसरे की चोटी में गजरे ये लगाती थी,
साड़ी के पल्लू को करीने से सजाती थीं।
रतजगे होते थे ठुमकों से इनके,
मंडप के नीचे की शोखियाँ इनसे होती थीं।
एक दूजे की विदाई में ज़ार ज़ार रोती थीं
दूर हो के भी कभी दूर नहीं होती थीं।
एक वक़्त था जब.....
बहनें भी इफ़रात में होती थीं।