भिक्षुक
भिक्षुक
है जीर्ण शीर्ण काया,
संग नहीं जिसके माया,
फटे चिथड़े में लिपटा,
जीवन में क्या है पाया।
देख के उसे मन दुखित,
कष्ट से हुआ मन व्यथित,
बोली में जो करुण क्रंदन,
मन हो गया है विचलित।
जीवन में उसके आस नहीं,
मन में कोई भी विश्वास नहीं,
भूख से विचलित रहा है वो,
सुख का कोई एहसास नहीं।
दर बदर की ठोकरें खाता,
दया से दो रोटी है पाता,
तकदीर का क्या कहें उसके,
उस पर है आँसू बहाता।
ईश्वर की कृपा का क्या कहें,
दुख तकलीफ उसके बच्चे भी सहे,
इतने कष्ट जीवन का सहकर,
बोलो जिंदा कैसे वह है रहें।
भिक्षुक है वह मन को पिघलाता,
मानवता जिंदा हो यह जतलाता,
पीड़ा होती देख उसे इसे हालात,
जीवन का मर्म है समझ आता।