भिखारी
भिखारी
जीर्ण शीर्ण सी काया लिए,
भटक रहा था वो डगर डगर,
पेट भर खाने के लिए
वो बेचैन और रहता था तरस।
इस गली से उस गली
नही मिला उसका कोई ठौर।
दो मुट्ठी अनाज के लिए
इधर उधर रहता था दौड़।
भूख से पेट चिपके
पीठ का था पता नही,
आँख थी जो धँसी उसकी,
गाल भी दिख रहा था नही।
चमड़ी उसकी झूल रही थी,
मांस का था नही ठिकाना।
हड्डियों से बना ढांचा,
देख कर था मन में क्रंदन।
दोष किसको दूँ सदा मैं,
नियति को या उसके कर्म को।
मानव के प्रति ये असमानता,
ईश्वर क्यों चुप और मौन।
जीर्ण शीर्ण है उसकी माँ,
मन करता है क्रंदन।
ईश्वर सबको क्षमा करें,
भूख से न हो रुदन।