भईया और बहना
भईया और बहना




कहने को तो साल में एक दिन रक्षाबंधन का त्योहार आता है,
मगर फूलों के जैसे यह प्यारा रिश्ता रोज घर को सजाता है।
सुबह से शाम तक होती रहती है कई मीठी लड़ाईया,
खुद ही रुला कर, खुद भी रोने लगता है भईया।
"देखो न माँ .. भईया मुझे डपट रहा है",
"नहीं नहीं माँ! बहन झूठ बोलती है.. वो तो मुझे सता रही है।"
भाई-बहन के इस आनाकानी में पूरा घर गूंज उठता है,
रिश्तों के इस छोटे से बगिया में मानो भौंरा खिलखिलाता है।
जब कभी बहन उदास किसी कोने में छुप जाती है,
तब भईया 'जोकर' बन चेहरे पर मुस्कान ले आता है।
बहन भी उस वक्त मर्म सी दुआ बन जाती है,
जिस पहर भईया मुश्किलों के सामने खड़ा होता है।
रूठने - मनाने में चाहे शाम गुजर जाता है,
पर रूला दे कोई बहना को, यह भईया को रास नहीं आता है।
भईया पर कोई और हक जताए तो बहन खीझ जाती है,
पर हँसते - हँसते भईया को भाभी पर सौंप कर, खुद विदा हो जाती है।
ये मजबूत धागा जो बहन अपनी भईया की कलाई पर बाँधती है,
'प्रीत का प्रतीक' अपने भईया में ही तो देखती है।
करता है वादा भईया भी और सदा बहन की रक्षा करता है,
समझ कर बहन को बेटी अपनी, पिता का भी हक अदा करता है।