बातें
बातें
1 min
351
बातों ही बातों में
बातें कहीं और रुख़ कर लेती हैं
भटक जाती हैं रास्ता
भूल जाती हैं अपनी मंज़िल
फिर वहाँ नहीं पहुँचती
जहाँ उन्हें पहुँचना होता है।
फिर नहीं करती वो असर
जो उन्हें करना होता है।
नाहक तर्कों के ढेर में वो बातें
जो खूबसूरत यादें बन सकती थी
कहीं खो जाती हैं।
ग़लतफ़हमियों के बोझ तले
अपने क़द से कई अधिक
बौनी हो जाती हैं।
बेहतर है कि बातों को
ख़ामोशी के लिफ़ाफ़े में बंद कर
मुस्कराहटों की सील लगा दें
और भेज दें गुमनामियों के पते पर
फिर वो बातें वहाँ जरूर पहुँचेगी
जहां उन्हें पहुँचना चाहिए।